Dec 15, 2007

गुनाहों का देवता


कौन सा गुनाह कैसा गुनाह!

किसी से ज़िंदगी भर स्नेह रखने का.. ..और जब वो स्नेह अप्नी पराकास्था पर पहुचने लगे तो उसका त्याग करने का ..

हैं न अजीब बात!

पर यही तो किया चंदर ने अपनी सुधा के साथ

इस भुलावे में की दुनिया प्यार की ऐसी पवित्रता के गीत जायेगी

प्यार भी कैसा ...

सुधा घर भर में अल्हड़ पुरवाई की तेरह तोड़ फोड़ मचने वाली सुधा , चंदर की आँख के एक इशारे से सुबह की नसीम की तेरह शांत हो जाती थी . .

कब और क्यूँ उसने चंदर के इशारों का यह मौन अनुशाशन स्वीकार कार लिया था , ये उसे खुद भी मालूम नाहीं था और ये सब इतने स्वाभाविक ढंग से इतना अपने आप होता गया की कोई इस प्रक्रिया से वाकिफ नाहीं था …


दोनों का एक दुसरे के प्रति अधिकार और आकर्षण इतना स्वाभाविक था जैसे शरद की पवित्रता या सुबह की रौशनी .

और अपनी इस सुधा को न चाहते हुए भी उसने उस राह में झोंक दिया जिस पर वो कभी नाहीं चलना चाहती थी. सुधा तो चुप चाप दुखी मन से ही सही उस राह पे चल पड़ी .

और चंदर…..

क्या चंदर का बलिदान उसे देवता बना पाया ?

जो समाज के सामने अपने प्यार को एक आदर्श एक मिसाल साबित करना चाहता था , वो अपने खुद के अंतर्मन से न जीत सका . और जब अपने आप को खुद से हारता पाया तो अपना सारा गुस्सा , सारा क्रोध उन पे निकाला जिनके स्नेह , जिनका प्रेम से वो अपने व्यक्तित्वा की उचैयों तक पहुँच पाया था .
तो क्या चंदर को अपनी भूल का एहसास हुआ ?

क्या वो कभी पता कर पाया की कहाँ उसका जीवन दर्शन उसे धोखा दे गया ?

पर ये भी तो सच है न की ज़िंदगी में बहुत सी बातें वक़्त रहते समझ नाहीं आतीं .
और जब समझ आती हैं तब तक बहुत डे हो चुकी होती है …..

चंदर हम में से अलग तो नाहीं !

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